भारत मे कई लोग जर्सी को गाय या दुधारू पशु समझ कर अपने घर मे ले आए है लाभ लोलूप हो कर वे इस जानवर को तो ले आए है लेकिन परिणाम स्वरूप भारत के करोड़ो लोगो को इसका परिणाम भुगतना पद रहा है
उनके शरीर और परिवार आज बीमारियो की चपेट मे आ गए है और भारत की कई बड़ी बीमारियो का कारण है ये जर्सी नाम का जानवर
1) इन गायों की पीठ सीधी व गलकम्बल विकसित नहीं होता है, जिससे गर्मी सहने की क्षमता कम होती है।
3) इनके बछड़े सुस्त होते हैं। ये 2 किमी. की दूरी 19.4 मिनट में पूरी करते हैं व हार्सपावर भी कम होता है।
4) पालने का खर्च अधिक है। इनमें थनैला, परजीवी तथा हरपीज विषाणु रोग काफी (72.7 प्रतिशत) पाया जाता है। इनमें चिचड़ अधिक (17 प्रतिशत) लगते हैं। इनमें 8-12 प्रतिशत थिलैरियां संक्रमण पाया गया है।
8) ये गायें ठण्डे देशों के पर्यावरण में ही रह सकती हैं। भारतीय परिवेश में रखने के लिए अलग से व्यवस्था करनी पड़ती है। गायें अधिक गर्मी सहन नहीं कर पाती हैं तथा इनकी दूध उत्पादन क्षमता घट जाती है। कई बार बीमारी के कारण मृत्यु भी हो जाती है।
9) इन्हें रखने के लिए अलग आवास की व्यवस्था करनी पड़ती है। क्योंकि ये कम तापमान व अच्छी आवास व्यवस्था तथा अच्छी खुराक मिलने पर ही इच्छित दूध का उत्पादन कर सकती हैं। अत: इनके रख-रखाव पर खर्च अधिक पड़ता है। शुष्क क्षेत्रों में इनका दुग्ध उत्पादन 70-80 प्रतिशत तक गिर जाता है।
10) बीमारियों से लडऩे की प्रतिरोधक क्षमता कम है। अत: ये सामान्य संक्रमण भी नहीं झेल पातीं व बीमार हो जाती हैं। साधारण रोग होने पर ही ये मरने लगती हैं। (पोंकना रिंडरपेस्ट), गलाघोंटू मुंहखुरी रोग आदि से इनमें मृत्यु दर अधिक होती है। इनमें बीमार होने की प्रवृत्ति व आवृत्ति अधिक होती है। ग्रामीण क्षेत्रों में इनके जीने की दर 40-50 प्रतिशत ही होती है।
11) अधिक दूध देने के कारण इनमें थनैला रोग अधिक होता है। इस रोग के जीवाणु त्वचा व थनों पर रहते हैं इस रोग के बाद उस थन का दूध सूख जाता है।
12) ये विदेशों से कई प्रकार की बीमारियाँ भी अपने साथ लायी हैं। जैसे मायकामप्लाज्मा, बबैसियसिस, थिलैरियोसिस, संक्रामक गर्भपात, न्यूमोनिया, दस्त रोटावायस, लैप्टोस्पादरा, क्षय रोग, ब्रुसोलोसिस क्लमाइडिया जोहनिज रोग, इरपिज विषाणु रोग आदि। इनमें से कई बीमारियां हमारे देश में नहीं होती थी मगर विदेशों से वीर्य/दूध सांडो द्वारा यह हमारे देश में भी प्रवेश कर गयी हैं। इन रोगों के अनुसंधान, निदान व रोगथाम पर एक बड़ी रकम खर्च करनी पड़ रही है।
19) इनमें क्षय रोग, मायकाप्लाजमा, लैप्टोस्पादज विभिन्न विषाणु रोग आदि प्राय: हो जाते हैं, जो दूध, सम्पर्क, सांस, मूत्र, गोबर द्वारा मनुष्य में रोग उत्पन्न कर सकते हैं। ऐसी गायों के सम्पर्क में जो लोग रहते हैं, उनमें क्षय रोग, ब्रुसैला रोग होने की सम्भावना बढ़ती है।
20) विदेशी नस्ल की गायें मीथेन, कार्बन डाईआक्सइड, कार्बन मोनोक्साइड, अमोनिया आदि कई प्रकार के हानिकारक गैसों का बहुतायत में उत्सर्जन करती हैं जो ओजोनपरत को नुकासन पहुंचाती है। ये गायें पर्यावरण को हानि पहुंचाती हैं।
22) विदेशी नस्ल की गायों को दूध उत्पादन के लिये रखा जाता है जब इनमें दूध उत्पादन बन्द होने लगता है तो प्राय: आक्सीटोसिन नामक हार्मोन की सुईयां लगाकर दूध निकाला जाता है। इस रूप में आक्सीटोसिन मानव स्वास्थ्य के लिये काफी घातक है।
24) इनके पास सोने पर मनुष्य में रोग उत्पन्न हो जाते हैं।
25) विदेशी तथा संकर गायें अधिक दाना खाती हैं, उनके गोबर, गोमुत्र में कोई औषधीय गुण नहीं होने के कारण उनके गोबर से जल्दी ही दुर्गन्ध आने लगती है
उनके शरीर और परिवार आज बीमारियो की चपेट मे आ गए है और भारत की कई बड़ी बीमारियो का कारण है ये जर्सी नाम का जानवर
1) इन गायों की पीठ सीधी व गलकम्बल विकसित नहीं होता है, जिससे गर्मी सहने की क्षमता कम होती है।
3) इनके बछड़े सुस्त होते हैं। ये 2 किमी. की दूरी 19.4 मिनट में पूरी करते हैं व हार्सपावर भी कम होता है।
4) पालने का खर्च अधिक है। इनमें थनैला, परजीवी तथा हरपीज विषाणु रोग काफी (72.7 प्रतिशत) पाया जाता है। इनमें चिचड़ अधिक (17 प्रतिशत) लगते हैं। इनमें 8-12 प्रतिशत थिलैरियां संक्रमण पाया गया है।
8) ये गायें ठण्डे देशों के पर्यावरण में ही रह सकती हैं। भारतीय परिवेश में रखने के लिए अलग से व्यवस्था करनी पड़ती है। गायें अधिक गर्मी सहन नहीं कर पाती हैं तथा इनकी दूध उत्पादन क्षमता घट जाती है। कई बार बीमारी के कारण मृत्यु भी हो जाती है।
9) इन्हें रखने के लिए अलग आवास की व्यवस्था करनी पड़ती है। क्योंकि ये कम तापमान व अच्छी आवास व्यवस्था तथा अच्छी खुराक मिलने पर ही इच्छित दूध का उत्पादन कर सकती हैं। अत: इनके रख-रखाव पर खर्च अधिक पड़ता है। शुष्क क्षेत्रों में इनका दुग्ध उत्पादन 70-80 प्रतिशत तक गिर जाता है।
10) बीमारियों से लडऩे की प्रतिरोधक क्षमता कम है। अत: ये सामान्य संक्रमण भी नहीं झेल पातीं व बीमार हो जाती हैं। साधारण रोग होने पर ही ये मरने लगती हैं। (पोंकना रिंडरपेस्ट), गलाघोंटू मुंहखुरी रोग आदि से इनमें मृत्यु दर अधिक होती है। इनमें बीमार होने की प्रवृत्ति व आवृत्ति अधिक होती है। ग्रामीण क्षेत्रों में इनके जीने की दर 40-50 प्रतिशत ही होती है।
11) अधिक दूध देने के कारण इनमें थनैला रोग अधिक होता है। इस रोग के जीवाणु त्वचा व थनों पर रहते हैं इस रोग के बाद उस थन का दूध सूख जाता है।
12) ये विदेशों से कई प्रकार की बीमारियाँ भी अपने साथ लायी हैं। जैसे मायकामप्लाज्मा, बबैसियसिस, थिलैरियोसिस, संक्रामक गर्भपात, न्यूमोनिया, दस्त रोटावायस, लैप्टोस्पादरा, क्षय रोग, ब्रुसोलोसिस क्लमाइडिया जोहनिज रोग, इरपिज विषाणु रोग आदि। इनमें से कई बीमारियां हमारे देश में नहीं होती थी मगर विदेशों से वीर्य/दूध सांडो द्वारा यह हमारे देश में भी प्रवेश कर गयी हैं। इन रोगों के अनुसंधान, निदान व रोगथाम पर एक बड़ी रकम खर्च करनी पड़ रही है।
19) इनमें क्षय रोग, मायकाप्लाजमा, लैप्टोस्पादज विभिन्न विषाणु रोग आदि प्राय: हो जाते हैं, जो दूध, सम्पर्क, सांस, मूत्र, गोबर द्वारा मनुष्य में रोग उत्पन्न कर सकते हैं। ऐसी गायों के सम्पर्क में जो लोग रहते हैं, उनमें क्षय रोग, ब्रुसैला रोग होने की सम्भावना बढ़ती है।
20) विदेशी नस्ल की गायें मीथेन, कार्बन डाईआक्सइड, कार्बन मोनोक्साइड, अमोनिया आदि कई प्रकार के हानिकारक गैसों का बहुतायत में उत्सर्जन करती हैं जो ओजोनपरत को नुकासन पहुंचाती है। ये गायें पर्यावरण को हानि पहुंचाती हैं।
22) विदेशी नस्ल की गायों को दूध उत्पादन के लिये रखा जाता है जब इनमें दूध उत्पादन बन्द होने लगता है तो प्राय: आक्सीटोसिन नामक हार्मोन की सुईयां लगाकर दूध निकाला जाता है। इस रूप में आक्सीटोसिन मानव स्वास्थ्य के लिये काफी घातक है।
24) इनके पास सोने पर मनुष्य में रोग उत्पन्न हो जाते हैं।
25) विदेशी तथा संकर गायें अधिक दाना खाती हैं, उनके गोबर, गोमुत्र में कोई औषधीय गुण नहीं होने के कारण उनके गोबर से जल्दी ही दुर्गन्ध आने लगती है
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